पवित्रा एकादशी का महत्व पुष्टिमार्ग में

शंख-चक्र-गदाधारी,श्रीमथुराधीशप्रभु:।


करुणग्राम नदी कूलात् स्वयं प्रादुर्बभूव य:।


पद्मनाभ मन: कामं, पूरयिता तनुरूपधृत्।


पातुनोsसँख्यान् जीवान्, केवलं कृपया तया।


 


पवित्रा पेहरन को दिन आयो। 


केसर कुंकुम रसरंग वागो,कुंदन धर पहरायो। 


जय जयकार होत वसुधा पर, सुर मुनि मङ्गल गायो। पतित पवित्र किये सुखसागर, सूरदास यश गायो।


 


समस्त पुष्टिभक्तिमार्गीय वैष्णव सृष्टि को एवं श्रीप्रथमेश गृहानुगामी निजजनों को पुष्टिभक्तिमार्ग प्राकट्य दिवस एवं पवित्राएकादशी पवित्राद्वादशी सहित पवित्रोत्सव की परम मंगलमयी वधाई।


दैवीजीवोध्दारार्थ भूमि भाग्यरूप वस्तुत: कृष्ण एव श्रीकृष्णास्य स्वरूप श्रीवल्लभ गुरुरूपेण प्रकटे, स्वमार्गीय पूर्वाचार्यों का यह कथन भी है कि- यदैव श्रीगोकुलस्वामी स्वमनोभिलषित-प्रकारक-शुध्दपुष्टिभक्तिमार्गम् प्रकटयितुं मन: कृतवान् तदैव स्वमुखारविन्दरूप आचार्याणाम् एव तत्प्रकटन-सामर्थ्यम् ज्ञात्वा भुवि प्राकट्यार्थम् आज्ञाम् दत्तवान्। अर्थात् पुष्टिपुरुषोत्तम् प्रभु ने जब शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग प्रकट करने का विचार किया तब यह मार्ग प्रकट करने के लिए स्वमुखारविन्दरूप श्रीआचार्यचरण को भूतल पर प्रकट होने की आज्ञा की। यह भाव श्रीवल्लभ जी ने सिद्धान्तरहस्यम् ग्रन्थ की अपनी विवृति टीका में आरम्भ में ही लिखे हैं अतः श्रीआचार्यचरण के प्राकट्य का मुख्य हेतु दैवीजीवोध्दारार्थ शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग प्रकट करना ही है।


पुष्टिभक्तिमार्ग प्राकट्य आज्ञा के विषय में चौरासीवैष्णवन की वार्तानुसार श्रीदामोदरदासजी की प्रथम वार्ता का प्रथम प्रसङ्ग तो आप सभी वैष्णवों ने पढ़ा या सुना ही होगा कि श्रीवल्लभ श्रीमद् गोकुल में श्रीगोविंदघाट पर विराजकर चिंतन कर रहे थे कि जीव दोष सहित है और पूर्णपुरुषोत्तम तो गुणनिधान हैं तो सदोष जीव का परब्रह्म श्रीकृष्ण से कैसे सम्बन्ध होगा!! उसी समय "श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि" साक्षात् भगवता प्रोक्तम्......" श्रीगोकुले श्रीयमुना तटे समुपासीना भगवन्तं श्रीगोपीजनवल्लभं साक्षाद् दृष्टवन्त:... श्रीयमुनातट पर प्रभु मूल रूप से प्रकट हो गए श्रीहरिरायजी सिद्धान्तरहस्य विवृति में आज्ञा कर रहे हैं "न पूर्वरसरूपेण मूलरूपेण वै हरि:। उक्तवानिति बोधाय साक्षात् पदमिहोदितम्" यहाँ प्रभु साक्षात् पधारे यहाँ आज्ञा न तो दूत एवं स्वप्नादि द्वारा दी अथवा न ही कोई अंश विभूति द्वारा आज्ञा दी, स्वयं धर्मी स्वरूप पधारे क्योकि यह मार्ग धर्मी का मार्ग है। श्रावण मास भगवत् सम्बन्धी है ,अमल पक्ष में यह आज्ञा हुयी अमल अर्थात् निर्दुष्ट यह मार्ग शुद्ध है अमल है निर्दुष्ट है,प्रभु एकादशी तिथि को आज्ञार्थ प्रकट हुए , तो एकादशी तिथि का भी गूढार्थ टीकाकारों ने कहा है लिखा है यथा श्रीव्रजोत्सवजी सिद्धान्तरहस्यम् ग्रन्थ की विवृति में एकादशी का गूढार्थ प्रकट कर रहे हैं "एकादशी हरि दिनम् उच्यते, एकादश इन्द्रियशोधिका च..... इत्यादि, एकादशी तिथि एकादश इन्द्रिय की शोधिका है एकादशी हरि का दिन है ,हरि सर्व दुःख हर्ता हैं, एकादश इन्द्रियों द्वारा ब्रह्मसम्बन्ध पश्चात् प्रभु सेवा करते हुए ग्यारह इंद्रियों को भगवत् सेवा में लगाना है इन एकादश इन्द्रियों को प्रभु सुखार्थ सेवा में विनियोग ही, इसी का प्रतीक यह एकादशी है।


महानिशि अर्धरात्रि में साक्षात् पुष्टिपुरुषोत्तम प्रकट हुए तब श्रीआचार्यचरण को ब्रह्मसम्बन्ध की आज्ञा दी और प्रभु ने जो आज्ञा की वह आज्ञा सिद्धान्तरहस्यम् ग्रन्थ में अक्षरशः है "साक्षात् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते"। श्रीआचार्यचरण ने प्रभु को पवित्रा धराये इसलिए यह दिन पवित्रा एकादशी के नाम से स्वमार्ग में प्रसिद्ध है। किन्तु पवित्रा धराना यह तो शास्त्रीय क्रम है पवित्रा केवल स्वमार्ग में ही धराया जाता है ऐसा नहीं अन्यमार्ग में भी यह सर्वत्र धराया जाता है, पवित्रा सिद्ध करने की विधि और विविध प्रकार के पवित्रा का वर्णन एवं पवित्रा के अधिवासन आदि का प्रकार शास्त्र में अति प्रसिद्ध है,इस विषय में जिज्ञासुओ को निर्णयसिंधु आदि ग्रन्थ देखने चाहिए। हेमाद्रि दिनकरोद्योत और ब्रह्मपुराण में स्पष्ट है कि "न करोति विधानेन पवित्रारोपणम् तु य:। तस्य सांवत्सरी पूजा निष्फला मुनिसत्तम" हे मुनिश्रेष्ठ विधान पूर्वक जो मनुष्य पवित्रा का समर्पण नहीं करता तो उसकी वार्षिकी सेवा पूजा निष्फल हो जाती है। शास्त्रीय विधान के साथ स्वमार्ग में भावना का प्राधान्य होने से पवित्रा धरने का भाव श्रीगोपीनाथप्रभुचरण ने इस प्रकार कहा है कि- 


या कृता वार्षिकी सेवा सा मूलफलदा मता। प्रत्यहं सूत्ररूपेण सैकीभूतानुभावनात् ।।1।।


पवित्रं तज्ज्ञापकं हि प्रेषितं हरिणा तत:। अतस्तदारोपणं तु श्रीकृष्णे सन्मतं सदा।।2।।


तदारोपाद्भक्तिभावा मूले सर्वे समर्पिता:। त्वत्प्रेषितं पवित्रं हि मूलसेवाफलात्मकम् ।।3।।


समर्पयामि तत्प्रीत: कृपयांगी कुरु प्रभो।। तत्समर्पणतो भावसेवाया: फलरूपता।।4।।


श्रीगोपीनाथप्रभुचरण अनुसार पवित्रा प्रभु को धरने से हमारी भाव सेवा फल रूपता को प्राप्त होती है।


श्रीआचार्यचरण ने प्रभु को पवित्रा धराया तदनुसार हम सब भी पवित्रा एकादशी को स्वसेव्य को पवित्रा धरते हैं और द्वादशी को अपने गुरु को पवित्रा धरने का क्रम है तो यह पवित्रोत्सव इतना दिव्य है कि इस उत्सव में प्रभु और गुरु दोनों का सानिध्य प्राप्त होता है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कोरोना काल में इस वर्ष गुरुजनों का सानिध्य वैष्णवों को नहीं मिल पायेगा,लेकिन हमें इससे दुःखी नहीं होना है प्रभु इच्छा मानते हुये श्रीगुरुदेव को आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों वीडियो कॉल आदि के माध्यम से अपने भक्ति भाव को अभिव्यक्त कर सकते हैं। पुष्टि प्रभु और पुष्टि गुरु परम् दयालु हैं अतः अपने अपने श्रीगुरूदेव को अवश्य वन्दन करें।


आप सभी भगवदीय वैष्णवजन यह पवित्रोत्सव स्वप्रभु के परम पवित्र सन्निधान में अत्यन्त आनन्द उत्साह से मनाएं, सभी आनंदित रहें स्वस्थ रहें हमारा मन श्रीकृष्णचरणाविन्द में स्थित रहे यही वास्तविक स्वस्थता है, श्रीकृष्णचरणकमल की सदा स्मृति ही वार्षिकी सेवा का सर्वोच्चतम फल है। 


पवित्रोत्सव की पुनः वधाई सह शुभाशंसा किमधिकम्.......


 


गोस्वामी 


मिलनकुमार


शुद्धाद्वैत प्रथमपीठ (कोटा)